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Deutsch 18-Hiob 030(Schl2000)

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1

Hiob 30,1

Jetzt aber lachen die über mich, die an Jahren jünger sind als ich, deren Väter ich verschmäht hätte, neben die Hunde meiner Herde zu setzen!

----- aber ------ --- über ----- --- an ------ ------- sind --- ---- deren ------ --- verschmäht ------- ----- die ----- ------ Herde -- -------

----- ---- lachen --- ----- ----- --- an ------ ------- ---- --- ich, ----- ------ --- ----------- hätte, ----- --- ----- ------ Herde -- -------

Hiob 30,1


2

Hiob 30,2

Wozu sollte mir die Arbeit ihrer Hände dienen, da es ihnen an ungebrochener Kraft fehlte?

---- sollte --- --- Arbeit ----- ------ dienen, -- -- ihnen -- ------------- Kraft -------

---- ------ mir --- ------ ----- ------ dienen, -- -- ----- -- ungebrochener ----- -------

Hiob 30,2


3

Hiob 30,3

Durch Mangel und Hunger abgezehrt, benagen sie das dürre Land, das längst wüst und verödet war;

----- Mangel --- ------ abgezehrt, ------- --- das ------ ----- das ------- ----- und -------- ----

----- ------ und ------ ---------- ------- --- das ------ ----- --- ------- wüst --- -------- ----

Hiob 30,3


4

Hiob 30,4

sie pflücken Salzkraut am Gesträuch, und ihr Brot ist die Ginsterwurzel.

--- pflücken --------- -- Gesträuch, --- --- Brot --- --- Ginsterwurzel.

--- --------- Salzkraut -- ----------- --- --- Brot --- --- --------------

Hiob 30,4


5

Hiob 30,5

Aus der Gemeinschaft werden sie gejagt; man schreit über sie wie über Diebe.

--- der ------------ ------ sie ------- --- schreit ----- --- wie ----- ------

--- --- Gemeinschaft ------ --- ------- --- schreit ----- --- --- ----- Diebe.

Hiob 30,5


6

Hiob 30,6

Am Abhang der Schluchten müssen sie wohnen, in Erdlöchern und Felsenhöhlen.

-- Abhang --- ---------- müssen --- ------- in ----------- --- Felsenhöhlen.

-- ------ der ---------- ------- --- ------- in ----------- --- --------------

Hiob 30,6


7

Hiob 30,7

Im Gebüsch schreien sie, unter dem Unkraut finden sie sich zusammen.

-- Gebüsch -------- ---- unter --- ------- finden --- ---- zusammen.

-- -------- schreien ---- ----- --- ------- finden --- ---- ---------

Hiob 30,7


8

Hiob 30,8

Als Kinder von Narren, Kinder von Ehrlosen, sind sie aus dem Land hinausgepeitscht worden.

--- Kinder --- ------- Kinder --- --------- sind --- --- dem ---- ---------------- worden.

--- ------ von ------- ------ --- --------- sind --- --- --- ---- hinausgepeitscht -------

Hiob 30,8


9

Hiob 30,9

Und jetzt bin ich ihr Spottlied geworden und diene ihnen zum Geschwätz!

--- jetzt --- --- ihr --------- -------- und ----- ----- zum -----------

--- ----- bin --- --- --------- -------- und ----- ----- --- -----------

Hiob 30,9


10

Hiob 30,10

Sie verabscheuen mich, fliehen vor mir, und vor meinem Angesicht halten sie den Speichel nicht zurück.

--- verabscheuen ----- ------- vor ---- --- vor ------ --------- halten --- --- Speichel ----- --------

--- ------------ mich, ------- --- ---- --- vor ------ --------- ------ --- den -------- ----- --------

Hiob 30,10


11

Hiob 30,11

Denn meine Bogensehne hat Er gelöst und mich gebeugt, darum lassen sie den Zügel vor mir schießen.

---- meine ---------- --- Er ------- --- mich -------- ----- lassen --- --- Zügel --- --- schießen.

---- ----- Bogensehne --- -- ------- --- mich -------- ----- ------ --- den ------ --- --- ----------

Hiob 30,11


12

Hiob 30,12

Zu meiner Rechten erhebt sich die Brut; sie stoßen meine Füße weg und schütten ihre Rampen zum Sturm gegen mich auf.

-- meiner ------- ------ sich --- ----- sie ------- ----- Füße --- --- schütten ---- ------ zum ----- ----- mich ----

-- ------ Rechten ------ ---- --- ----- sie ------- ----- ------ --- und --------- ---- ------ --- Sturm ----- ---- ----

Hiob 30,12


13

Hiob 30,13

Meinen Pfad haben sie eingerissen, zu meinem Untergang helfen sie, die selbst keinen Helfer haben.

------ Pfad ----- --- eingerissen, -- ------ Untergang ------ ---- die ------ ------ Helfer ------

------ ---- haben --- ------------ -- ------ Untergang ------ ---- --- ------ keinen ------ ------

Hiob 30,13


14

Hiob 30,14

Wie durch eine weite Bresche rücken sie heran; unter Getöse wälzen sie sich daher.

--- durch ---- ----- Bresche ------- --- heran; ----- ------- wälzen --- ---- daher.

--- ----- eine ----- ------- ------- --- heran; ----- ------- ------- --- sich ------

Hiob 30,14


15

Hiob 30,15

Jähe Schrecken haben sich gegen mich gewendet; meine Ehre ist wie der Wind verflogen, und meine Rettung ist vorübergezogen wie eine Wolke.

----- Schrecken ----- ---- gegen ---- --------- meine ---- --- wie --- ---- verflogen, --- ----- Rettung --- --------------- wie ---- ------

----- --------- haben ---- ----- ---- --------- meine ---- --- --- --- Wind ---------- --- ----- ------- ist --------------- --- ---- ------

Hiob 30,15


16

Hiob 30,16

Und nun zerfließt meine Seele in mir; die Tage des Elends haben mich ergriffen.

--- nun ---------- ----- Seele -- ---- die ---- --- Elends ----- ---- ergriffen.

--- --- zerfließt ----- ----- -- ---- die ---- --- ------ ----- mich ----------

Hiob 30,16


17

Hiob 30,17

Die Nacht durchbohrt mein Gebein, und meine nagenden Schmerzen schlafen nicht;

--- Nacht ---------- ---- Gebein, --- ----- nagenden --------- -------- nicht;

--- ----- durchbohrt ---- ------- --- ----- nagenden --------- -------- ------

Hiob 30,17


18

Hiob 30,18

durch ihre große Heftigkeit verändert sich mein Gewand; wie der Kragen meines Hemdes schnürt es mich ein.

----- ihre ------ ---------- verändert ---- ---- Gewand; --- --- Kragen ------ ------ schnürt -- ---- ein.

----- ---- große ---------- ---------- ---- ---- Gewand; --- --- ------ ------ Hemdes -------- -- ---- ----

Hiob 30,18


19

Hiob 30,19

Er hat mich in den Kot geworfen, und ich bin wie Staub und Asche geworden.

-- hat ---- -- den --- --------- und --- --- wie ----- --- Asche ---------

-- --- mich -- --- --- --------- und --- --- --- ----- und ----- ---------

Hiob 30,19


20

Hiob 30,20

Ich schreie zu dir, und du antwortest mir nicht; ich stehe da, und du beobachtest mich.

--- schreie -- ---- und -- ---------- mir ------ --- stehe --- --- du ----------- -----

--- ------- zu ---- --- -- ---------- mir ------ --- ----- --- und -- ----------- -----

Hiob 30,20


21

Hiob 30,21

Du hast dich mir in einen unbarmherzigen Feind verwandelt; mit deiner gewaltigen Hand widerstehst du mir.

-- hast ---- --- in ----- -------------- Feind ----------- --- deiner ---------- ---- widerstehst -- ----

-- ---- dich --- -- ----- -------------- Feind ----------- --- ------ ---------- Hand ----------- -- ----

Hiob 30,21


22

Hiob 30,22

Du setzt mich dem Sturm aus, lässt mich dahinfahren, lässt mich vergehen in Unruhe.

-- setzt ---- --- Sturm ---- ------ mich ------------ ------ mich -------- -- Unruhe.

-- ----- mich --- ----- ---- ------ mich ------------ ------ ---- -------- in -------

Hiob 30,22


23

Hiob 30,23

Denn ich weiß, dass du mich zum Tode führen wirst, in das Haus, wo alle Lebendigen zusammenkommen.

---- ich ------ ---- du ---- --- Tode ------- ------ in --- ----- wo ---- ---------- zusammenkommen.

---- --- weiß, ---- -- ---- --- Tode ------- ------ -- --- Haus, -- ---- ---------- ---------------

Hiob 30,23


24

Hiob 30,24

Doch streckt man nicht seine Hand aus, wenn man unter Trümmern [begraben] ist, oder erhebt man nicht ein Hilfsgeschrei, wenn man untergeht?

---- streckt --- ----- seine ---- ---- wenn --- ----- Trümmern ---------- ---- oder ------ --- nicht --- -------------- wenn --- ----------

---- ------- man ----- ----- ---- ---- wenn --- ----- --------- ---------- ist, ---- ------ --- ----- ein -------------- ---- --- ----------

Hiob 30,24


25

Hiob 30,25

Habe ich nicht geweint über den, der böse Zeiten hatte, und war meine Seele nicht über den Armen bekümmert?

---- ich ----- ------- über ---- --- böse ------ ------ und --- ----- Seele ----- ----- den ----- -----------

---- --- nicht ------- ----- ---- --- böse ------ ------ --- --- meine ----- ----- ----- --- Armen -----------

Hiob 30,25


26

Hiob 30,26

Ja, ich habe auf Gutes gehofft, und es kam Böses; ich wartete auf das Licht, und es kam Finsternis.

--- ich ---- --- Gutes -------- --- es --- ------- ich ------- --- das ------ --- es --- -----------

--- --- habe --- ----- -------- --- es --- ------- --- ------- auf --- ------ --- -- kam -----------

Hiob 30,26


27

Hiob 30,27

Meine Eingeweide sind zum Sieden gebracht und haben keine Ruhe; die Tage meines Elends sind mir entgegengetreten.

----- Eingeweide ---- --- Sieden -------- --- haben ----- ----- die ---- ------ Elends ---- --- entgegengetreten.

----- ---------- sind --- ------ -------- --- haben ----- ----- --- ---- meines ------ ---- --- -----------------

Hiob 30,27


28

Hiob 30,28

Traurig gehe ich einher, ohne Sonne; ich stehe in der Gemeinde auf und schreie [um Hilfe].

------- gehe --- ------- ohne ------ --- stehe -- --- Gemeinde --- --- schreie --- -------

------- ---- ich ------- ---- ------ --- stehe -- --- -------- --- und ------- --- -------

Hiob 30,28


29

Hiob 30,29

Ich bin den Schakalen ein Bruder geworden und ein Gefährte der Strauße.

--- bin --- --------- ein ------ -------- und --- --------- der ---------

--- --- den --------- --- ------ -------- und --- --------- --- ---------

Hiob 30,29


30

Hiob 30,30

Meine Haut ist schwarz geworden und löst sich von mir ab, und meine Gebeine brennen vor Hitze.

----- Haut --- ------- geworden --- ----- sich --- --- ab, --- ----- Gebeine ------- --- Hitze.

----- ---- ist ------- -------- --- ----- sich --- --- --- --- meine ------- ------- --- ------

Hiob 30,30


31

Hiob 30,31

Mein Harfenklang ist zu einem Trauerlied geworden und mein Flötenspiel zu lautem Weinen.

---- Harfenklang --- -- einem ---------- -------- und ---- ------------ zu ------ -------

---- ----------- ist -- ----- ---------- -------- und ---- ------------ -- ------ Weinen.

Hiob 30,31